श्रंगार - प्रेम >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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गुलशन नंदा का एक रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
राजन, सीतलवादी में एक कंपनी में काम की तलाश में जाता है। वहां एक दिन
रास्ते में वह एक लड़की से टकरा जाता है। जिसका नाम पार्वती है। वह दोनों
एक दूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं। लेकिन जब यह बात लड़की
के बाबा को पता चलती है। तो वह यह आघात बर्दाश्त नहीं कर पाते और मरने से
पहले पार्वती का विवाह कंपनी के मैनेजर हरीश से तय कर जाते हैं। एक दिन
रस्सी का पुल पार करते हुए हरीश का पैर फिशलता है और वह मर जाता है।
पार्वती, राजन को हरीश का जिम्मेदार ठहराती है क्योंकि घटना के समय राजन
भी वही मौजदू होता है।
क्या वास्तव में ही राजन हरीश की मौत का जिम्मेदार था ? क्या पार्वती के विधवा होने पर राजन ने फिर उससे विवाह किया ? क्या पार्वती ने अपने पति की मौत का बदला लिया ? दो तड़पते दिलों की कहानी जिसे लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा ने लिखा है।
गुलशन नंदा का नाम रोमांटिक और सामाजिक उपन्यासकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। उन्होंने अपने बीच समाज को जिया तथा उसके ताने-बाने को अपने उपन्यासों में उतारा था। उनके सभी उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। उनके लोकप्रिय उपन्यासों में घाट का पत्थर, नीलकंठ, जलती चट्टान, कलंकिनी आसमान चुप है, चंदन शीशे की दीवार प्रमुख रही है। आज सभी उनकी लिखी कहानियां एवं उपन्यास घर-घर में पढ़े जाते हैं। गुलशन नंदा के सभी उपन्यास अपने पहले ही संस्करण में पांच लाख से ऊपर बिकते थे। आज भी निरंतर बिक रहे हैं। इनके कई उपन्यासों पर फिल्म भी बन चुकी हैं। पाठक आज भी उनके साथ है, भले वे आज हमारे बीच नहीं है।
क्या वास्तव में ही राजन हरीश की मौत का जिम्मेदार था ? क्या पार्वती के विधवा होने पर राजन ने फिर उससे विवाह किया ? क्या पार्वती ने अपने पति की मौत का बदला लिया ? दो तड़पते दिलों की कहानी जिसे लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा ने लिखा है।
गुलशन नंदा का नाम रोमांटिक और सामाजिक उपन्यासकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। उन्होंने अपने बीच समाज को जिया तथा उसके ताने-बाने को अपने उपन्यासों में उतारा था। उनके सभी उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनी। उनके लोकप्रिय उपन्यासों में घाट का पत्थर, नीलकंठ, जलती चट्टान, कलंकिनी आसमान चुप है, चंदन शीशे की दीवार प्रमुख रही है। आज सभी उनकी लिखी कहानियां एवं उपन्यास घर-घर में पढ़े जाते हैं। गुलशन नंदा के सभी उपन्यास अपने पहले ही संस्करण में पांच लाख से ऊपर बिकते थे। आज भी निरंतर बिक रहे हैं। इनके कई उपन्यासों पर फिल्म भी बन चुकी हैं। पाठक आज भी उनके साथ है, भले वे आज हमारे बीच नहीं है।
जलती चट्टान
रेलगाड़ी ने जब सीतापुर का स्टेशन छोड़ा तो राजन देर तक खड़ा उसे देखता
रहा। जब अंतिम डिब्बा सिगनल के करीब पहुँचा तो उसने एक लंबी साँस ली। अपने
मैले वस्त्रों को झाड़ा, सिर के बाल संवारे और गठरी उठाकर फाटक की ओर चल
पड़ा।
जब वह स्टेशन के बाहर पहुँचा तो रिक्शे वालों ने घूमकर आशा भरे नेत्रों से उसका स्वागत किया। राजन ने लापरवाही से अपनी गठरी एक रिक्शा में रखी और बैठते हुए बोला-सीतलवादी।
तुरंत ही रिक्शा एक छोटे-से रास्ते पर हो लिया, जो नीचे घाटी की ओर उतरता था। चारों ओर हरी-भरी झाड़ियाँ ऊँची-ऊँची प्राचीर की भांति खड़ी थीं। पक्षियों के झुंड एक ओर से आते और दूसरी ओर पंख पसारे बढ़ जाते कि राजन की दृष्टि टिक भी न पाती थी। वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि वह स्थान ऐसा बुरा नहीं-जैसा वह समझे हुए था।
थोड़ी ही देर में रिक्शा काफी नीचे उतर गई। राजन ने देखा कि ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रहा था-हरियाली आँखों से ओझल होती जा रही है। थोड़ी दूर जाने पर हरियाली बिल्कुल ही दृष्टि से ओझल हो गई और स्याही जैसी धरती दिखाई देने लगी। कटे हुए मार्ग के दोनों ओर ऐसा प्रतीत हो रहा था-मानो काले देव खड़े हों।
थोड़ी दूर जाकर रिक्शे वाले ने दोराहे पर रिक्शा रोका। राजन धीरे से धरती पर पैर रखते हुए बोला-‘तो क्या यही सीतलवादी है ?’
‘‘हाँ, बाबू...ऊपर चढ़ते ही सीतलवादी आरंभ होती है।’
‘अच्छा !’ और जेब से एक रुपया निकालकर उसकी हथेली पर रख दिया।
‘लेकिन बाबू ! छुट्टी नहीं है।’
‘कोई बात नहीं फिर कभी ले लूँगा। तुम भी यहीं हो और शायद मुझे भी इन्हीं पर्वतों में रहना हो।’
‘अच्छा बाबू ! नंबर चौबीस याद रखना।’
राजन उसकी सादगी पर मुस्कुराया और गठरी उठाकर ऊपर की ओर चल दिया।
जब उसने सीतलवादी में प्रवेश किया तो सर्वप्रथम उसका स्वागत वहाँ के भौंकते हुए कुत्तों ने किया-जो शीघ्र ही राजन की ओर स्नेह भरी दृष्टि से प्रभावित हो दुम हिलाने लगे और खामोशी से उसके साथ हो लिए। रास्ते में दोनों ओर छोटे-छोटे पत्थर के मकान थे-जिनके बाहर कुछ लोग बैठे किसी न किसी धंधें में संलग्न थे। राजन धीरे-धीरे पग बढ़ाता जा रहा था मानो सबके चेहरों को पढ़ता जा रहा हो।
वह किसी से कुछ पूछना चाहता था-किंतु उसे लगता था कि जैसे उसकी जीभ तालू से चिपक गई है। थोड़ी दूर चलकर वह एक प्रौढ़ व्यक्ति के पास जा खड़ा हुआ-जो एक टूटी सी खाट पर बैठ कर हुक्का पी रहा था। उस प्रौढ़ व्यक्ति ने राजन की ओर देखा। राजन बोला-
‘‘मैं कलकत्ते से आ रहा हूँ। यहाँ बिल्कुल नया हूँ।’
‘कहो, मैं क्या कर सकता हूँ ?’
‘मुझे कंपनी के दफ्तर तक जाना है।’
‘क्या किसी काम से आए हो ?’
‘जी ! वर्क्स मैनेजर से मिलना है। एक पत्र।’
‘अच्छा तो ठहरो ! मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।’ कहकर वह हुक्का छोड़ उठने लगा।
‘आप कष्ट न करिए-केवल रास्ता...।’
‘कष्ट कैसा...मुझे भी तो ड्यूटी पर जाना है। आधा घंटा पहले ही चल दूँगा।’ और वह कहते-कहते अंदर चला गया। तुरंत ही सरकारी वर्दी पहने वापस लौट आया। जब दोनों चलने लगे तो राजन से बोला-‘यह गठरी यहीं छोड़ जाओ। दफ्तर में ले जाना अच्छा नहीं लगता।’
‘ओह...मैं समझ गया।’
‘काकी !’ उस मनुष्य ने आवाज दी और एक बुढ़िया ने झरोखे से आकर झाँका-‘जरा यह अंदर रख दे।’ और दोनों दफ्तर की ओर चल दिए।
थोड़ी ही देर में वह मनुष्य राजन को साथ लिए मैनेजर के कमरे में पहुँचा। पत्र को चपरासी को दे दोनों पास पड़े बैंच पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगे।
चपरासी का संकेत पाते ही राजन उठा और पर्दा उठाकर उसने मैनेजर के कमरे में प्रवेश किया। मैनेजर ने अपनी दृष्टि पत्र से उठाई और मुस्कुराते हुए राजन के नमस्कार का उत्तर दिया।
‘कलकत्ता से कब आए ?’
‘अभी सीधा ही आ रहा हूँ।’
‘तो वासुदेव तुम्हारे चाचा हैं ?’
‘जी...!’
‘तुम्हारा मन यहाँ लग जाएगा क्या ?’
‘क्यों नहीं ! मनुष्य चाहे तो क्या नहीं हो सकता।’
‘हाँ यह तो ठीक है-परंतु तुम्हारे चाचा के पत्र से तो प्रतीत होता है कि आदमी जरा रंगीले हो। खैर...यह कोयले की चट्टानें शीघ्र ही तुम्हें कलकत्ता भुला देंगी।’
‘उसे भूल जाने को ही तो मैं यहाँ आया हूँ।’
‘अच्छा-यह तो तुम जानते ही हो कि वासुदेव ने मेरे साथ छः वर्ष काम किया है।’
‘जी..!’
‘और कभी भी मेरी आन और कर्त्तव्यों को नहीं भूला।’
‘आप मुझ पर विश्वास रखें-ऐसा ही होगा।’
‘मुझे भी तुमसे यही आशा थी। अच्छा अभी तुम विश्राम करो। कल कवेरे ही मेरे पास आ जाना।’
राजन ने धन्यवाद के पश्चात् दोनों हाथों से नमस्कार किया और बाहर जाने लगा।
‘परंतु रात्रि भर ठहरोगे कहाँ ?’
‘यदि कोई स्थान...।’
‘मकान तो कोई खाली नहीं। कहो तो किसी के साथ प्रबंध कर दूँ।’
‘रहने दीजिए-अकेली जान है। कहीं पड़ा रहूँगा-किसी को कष्ट देने से क्या लाभ।’
मैनेजर राजन का उत्तर सुनकर मुस्कुराया और बोला-‘तुम्हारी इच्छा !’
राजन नमस्कार करके बाहर चला गया।
उसका साथी अभी तक उसकी राह देख रहा था। राजन के मुख पर बिखरे उल्लास को देखते हुए बोला।
‘‘क्यों भइया ! काम बन गया ?’
‘क्या किसी नौकरी के लिए आए थे ?’
‘जी...!’
‘और वह पत्र ?’
‘मेरे चाचा ने दिया था। वह कलकत्ता हैड ऑफिस में काफी समय इनके साथ काम करते रहे हैं।’
‘और ठहरोगे कहाँ ?’
‘इसकी चिंता न करो-सब ठीक हो जाएगा।’
‘अच्छा-तुम्हारा नाम ?’
‘राजन !’
‘मुझे कुंदन कहते हैं।’
‘आप भी यहीं।’
‘हाँ-इसी कंपनी में काम करता हूँ।’
‘कैसा काम ?’
‘इतनी जल्दी क्या है ? सब धीरे-धीरे मालूम हो जाएगा।’
‘अब जाओ-जाकर विश्राम करो। रास्ते की थकावट होगी।’
और आप।’
‘ड्यूटी !’
‘ओह..मेरी गठरी ?’
‘जाकर काकी से ले लो-हाँ-हाँ वह तुम्हें पहचान लेंगी।’
‘अच्छा तो कल मिलूँगा।’
‘अवश्य ! हाँ, देखो किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कुंदन को मत भूलना।’
काकी से गठरी ली और एक ओर चल दिया। वह गाँव को इस दृष्टि से देखने लगा कि रात्रि व्यतीत करने के लिए कोई स्थान ढूँढ़ सके। चाहे पर्वत की कोई गुफा ही क्यों न हो। वह आज बहुत प्रसन्न था। इसलिए नहीं कि उसे नौकरी मिलने की आशा हो गई थी, बल्कि इन पर्वतों में रहकर शांति भी पा सकेगा और अपनी आयु के शेष दिन प्रकृति की गोद में हँसते-खेलते बिता देगा। वह कलकत्ता के जीवन से ऊब चुका था। अब वहाँ रखा भी क्या था ! कौन-सा पहलू था, जो उसकी दृष्टि से बच गया हो। सब बनावट ही बनावट-झूठ व मक्कार की मंडी !
वह इन्हीं विचारों में डूबा ‘वादी’ से बाहर पहुँच गया। उसने देखा-थोड़ी दूर पर एक छोटी सी नदी पहाड़ियों की गोद में बलखाती बह रही है। उसके मुख पर प्रसन्नता-सी छा गई। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा नदी के किनारे जा पहुँचा और कपड़े उतारकर जल में कूद पड़ा।
स्नान के पश्चात् उसने वस्त्र बदल डाले और मैले वस्त्रों को गठरी में बाँध, नदी के किनारे-किनारे हो लिया।
सूर्य देवता दिन भर के थके विश्राम करने संध्या की मटमैली चादर ओढ़े अंधकार की गोद में मुँह छिपाते जा रहे थे। राजन की आँखों में नींद भर-भर आती थी। वह इतना थक चुका था कि उसकी दृष्टि चारों ओर विश्राम का स्थान खोज रही थी। दूर उसे कुछ सीढ़ियाँ दिखाई दीं। वह उस ओर शीघ्रता से बढ़ा।
वे सीढ़ियाँ एक मंदिर की थीं-जो पहाड़ियों को काटकर बनाया गया था और बहुत पुराना प्रतीत होता था। वह सीढ़ियों पर पग रखते हुए मंदिर की ओर बढ़ा-परंतु चार-छः सीढ़ियाँ बढ़ते ही अपना साहस खो बैठा। गठरी फेंक वहीं सीढ़ियों पर लेट गया, थकावट पहले ही थी-लेटते ही सपनों की दुनिया में खो गया।
डूबते हुए सूर्य की वे बुझती किरणें मंदिर की सीढ़ियों पर पड़ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्य ने अपनी उन किरणों को समेट लिया। ‘सीतलवादी’ अंधकार में डूब गई-परंतु पूर्व में छिपे चंद्रमा से यह सब कुछ न देखा गया। उसने मुख से घूँघट उतारा और अपनी रजत किरणों से मंदिर की ऊँची दीवारों को फिर जगमगा दिया। ऐसे समय में नक्षत्रों ने भी उनका साथ दिया। मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं-परंतु राजन निद्रा में मग्न उन्हीं सीढ़ियों पर सो रहा था।
अचानक वह नींद में चौंक उठा। उसे ऐसा लगा-मानों उसके वक्षस्थल पर किसी ने वज्रपात किया हो। अभी वह उठ भी न पाया था कि उसके कानों में किसी के ये शब्द सुनाई पड़े-‘क्षमा करिए-गलती मेरी है। मैं शीघ्रता में यह न देख सकी कि कोई सीढ़ियों पर सो रहा है। मेरा पाँव आपके वक्षस्थल पर पड़ गया।’
राजन ने पलटकर देखा-उसके सम्मुख एक सौंदर्य की प्रतिमा खड़ी थी। उस सुंदरी के हाथों में फूल थे-जो शायद मंदिर के देवता के चरणों को सुशोभित करने वाले थे। ऐसा ज्ञात होता था-मानो चंद्रमा अपना यौवन लिए हुए धरती पर उतर आया हो।
राजन ने नेत्र झपकाते हुए सोचा-कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा। परंतु यह एक वास्तविकता थी।
राजन अब भी मोहाछन्न-सा उसी की ओर देखे जा रहा था। सुंदरता ने मर्म भेदी दृष्टि से राजन की ओर देखा और सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते मंदिर की ओर चल दी। उसके पांवों में बंधी पाजेब की झंकार अभी तक उसके कानों में गूँज रही थी और फूलों की सुंगध वायु के धीमे-धीमे झोंके से अभी तक उसे सुगंधित कर रही थी।
न जाने वह कितनी देर तक इन्हीं मीठी कल्पनाओं में डूबा सीढ़ियों पर बैठा रहा। अचानक वही रुन-झुन उसे फिर सुनाई पड़ी। शायद वह पूजा के पश्चात् लौट रही थी। राजन झट से सीढ़ियों पर लेट गया। धीरे-धीरे पाजेब की झंकार समीप आती गई। अब वह सीढ़ियों से उतर रही थी तो न जाने राजन को क्या सूझी कि उसने सीढ़ियों पर आंचल पकड़ लिया। लड़की ने आंचल खींचते-खींचते मुँह बनाकर कहा-‘यह क्या है ?’
‘’शायद पाँवों से ठोकर तुम्हीं ने लगाई थी।’
‘हाँ, तो यह गलती मेरी ही थी।’
‘केवल गलती मानने से क्या होता है।’
‘तो क्या कोई दण्ड देना है ?’
‘दण्ड, नहीं तो...एक प्रार्थना है।’
‘क्या ?’
‘जिस प्रकार तुमने मंदिर जाते समय अपना पाँव मेरे वक्षस्थल पर रखा था-उसी प्रकार पाँव रखते हुए सीढ़ियाँ उत्तर जाओ।’
‘भला क्यों ?’
‘मेरी दादी कहती थी कि यदि कोई ऊपर से फाँद जाए तो आयु कम हो जाती है।’
‘ओह ! तो यह बात है-परंतु इतने बड़े संसार में एक-आध मनुष्य समय से पहले चला भी जाए तो हानि क्या है ?’
इतना कहकर हँसते-हँसते सीढ़ियाँ उतर गई-राजन देखता का देखता रह गया-पाजेब की झंकार और वह हँसी देर तक उसके कानों में गूँजती रही।
प्रातःकाल होते ही राजन मैनेजर के पास पहुँच गया-
वह पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था-उसे देखते ही बोला-‘आओ राजन ! मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था।’
फिर सामने खड़े एक पुरुष से बोला-
‘माधो ! यह हैं वह युवक जिनकी बात अभी मैं कर रहा था !’ और राजन की ओर मुख फेरते हुए बोला-‘राजन इनके साथ जाओ-ये तुम्हें सब काम समझा देंगे आज से तुम इस कंपनी में एक सौ रुपये वेतन पर रख लिए गए हो।’
‘मैं किस प्रकार आपका धन्यवाद करूँ ?’
‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं-परन्तु देखो-कार्य काफी जिम्मेदारी का है।’
‘इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं-मैं अच्छी प्रकार समझता हूँ।’
कहते हुए राजन माधो के साथ बाहर निकल गया।
थोड़ी दूर दोनों एक टीले पर जाकर रुक गए-माधो बोला-
‘राजन ! यह वह स्थान है-जहाँ तुम्हें दिन भर काम करना है।’
‘और काम क्या होगा-माधो ?’
‘यह सामने देखते हो-क्या है ?’
‘मजदूर...सन की थैलियों में कोयला भर रहे हैं।’
‘और वह नीचे !’ माधो ने टीले के नीचे संकेत करते हुए पूछा।
राजन ने नीचे झुककर देखा-एक गहरी घाटी थी-उसके संगम में रेल की पटरियों का जाल बिछा पड़ा था।
‘शायद कोई रेलवे स्टेशन है।’
‘ठीक है-और यह लोहे की मजबूत तार, जो इस स्थान और स्टेशन को आपस में मिलाती है जानते हो क्या है ?’’
‘टेलीफोन !’
हँसते हुए कहा-‘नहीं साहबजादे ! देखो मैं समझाता हूँ।’
माधो ने एक मजदूर से कोयले की थैली मँगवाई और उसे तार से लपेटते हुए भारी लोहे के कुण्डों से लटका दिया-ज्यों ही माधो ने हाथ छोड़ा थैली तार पर यों भागने लगी-मानो कोई वस्तु हवा में उड़ती जा रही हो-पल भर में वह नीचे पहुँच गई-राजन मुस्कुराते हुए बोला-‘सब समझ गया-यह कोलया थेलियों में भर-भरकर तार द्वारा स्टेशन तक पहुँचाना है।’
‘केवल पहुँचाना ही नहीं-बल्कि सब हिसाब भी रखना है और सांझ को नीचे जाकर मुझे बताना है-मैं यह कोयला मालगाड़ियों में भरवाता हूँ।’
‘ओहो ! समझा ! और वापसी पर थैलियाँ मुझे ही लानी होंगी।’
‘नहीं-इस कार्य के लिए गधे मौजूद हैं।’
राजन यह उत्तर सुनते ही मुँह फेरकर हँसने लगा, और नाक सिकोड़ता हुआ नीचे को चल दिया।
माधो के कहने के अनुसार राजन अपने काम में लग गया। उसके लिए यह थैलियों का तार के द्वारा नीचे जाना-मानो एक तमाशा था-जब थैली नीचे जाती तो राजन यों महसूस करता-जैसे कुण्डे के साथ सटका हुआ हृदय घाटियों को पार करता जा रहा हो, वह यह सब कुछ देख मन ही मन मुस्करा उठा-परंतु काम करते-करते जब कभी उसके सम्मुख रात्रि वाली यह सौंदर्य प्रतिमा आ जाती तो वह गंभीर हो जाता-फिर यह सोचकर कि उसने कोई स्वप्न देखा है-भला इन अंघेरी घाटियों में ऐसी सुंदरता का क्या काम ? सोचते-सोचते वह अपने काम में लग जाता।
काम करते-करते चार बज गए-छुट्टी की घंटी बजी-मजदूरों ने काम छोड़ दिया और अपने-अपने वस्त्र उठा दफ्तर की ओर बढ़े।
‘तो क्या छुट्टी हो गई ?’ राजन ने एक से पूछा।
‘जी बाबूजी –परंतु आपकी नहीं।’
‘वह क्यों ?’
‘अभी तो राजन नीचे जाकर माधो दादा को हिसाब बतलाना है।’
और राजन शीघ्रता से रजिस्टर उठा घाटियों में उतरती हुई पगडंडी पर हो लिया-जब वह स्टेशन पहुँचा तो माधो पहले से ही उसकी राह देख रहा था-राजन को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पहले ही दिन हिसाब माधो से मिल गया-हिसाब देखने के बाद माधो बोला-
‘राजन, आशा है कि तुम इस कार्य को शीघ्र ही समझ लोगो।’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है दादा !’ राजन ने सामने रखे चाय के प्याले पर दृष्टि फेंकते हुए उत्तर दिया और फिर बोला-‘दादा इसकी क्या आवश्यकता थी ? तुमने तो बेकार कष्ट उठाया।’ कहते हुए चाय का प्याला उठाकर गटागट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा क्रोध आया, पर बनावटी मुस्कान होंठों पर लाते हुए बोला-‘कष्ट काहे का-आखिर दिन भर के काम के पश्चात् एक प्याला चाय ही तो है।’
‘दादा ! अब तो कल प्रातः तक की छुट्टी ?’ राजन ने खाली प्याला वापस रखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं-हाँ, देखो यह सरकारी वर्दी रखी है और यह रहा तुम्हारा गेट पास-इसका हर समय तुम्हारे पास होना आवश्यक है।’
‘यह तो अच्छा किया-वरना सोच रहा था कि प्रतिदिन कोयले से रंगे काले मेरे वस्त्रों को धोएगा कौन ?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दूसरे से वस्त्र उठाते हुए वह दफ्तर की ओर चल पड़ा-कंपनी के गेट से बाहर निकलते ही राजन सीधा कुंदन के घर पहुँचा-कुंदन उसे देखते ही बोला-
जब वह स्टेशन के बाहर पहुँचा तो रिक्शे वालों ने घूमकर आशा भरे नेत्रों से उसका स्वागत किया। राजन ने लापरवाही से अपनी गठरी एक रिक्शा में रखी और बैठते हुए बोला-सीतलवादी।
तुरंत ही रिक्शा एक छोटे-से रास्ते पर हो लिया, जो नीचे घाटी की ओर उतरता था। चारों ओर हरी-भरी झाड़ियाँ ऊँची-ऊँची प्राचीर की भांति खड़ी थीं। पक्षियों के झुंड एक ओर से आते और दूसरी ओर पंख पसारे बढ़ जाते कि राजन की दृष्टि टिक भी न पाती थी। वह मन ही मन प्रसन्न हो रहा था कि वह स्थान ऐसा बुरा नहीं-जैसा वह समझे हुए था।
थोड़ी ही देर में रिक्शा काफी नीचे उतर गई। राजन ने देखा कि ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ रहा था-हरियाली आँखों से ओझल होती जा रही है। थोड़ी दूर जाने पर हरियाली बिल्कुल ही दृष्टि से ओझल हो गई और स्याही जैसी धरती दिखाई देने लगी। कटे हुए मार्ग के दोनों ओर ऐसा प्रतीत हो रहा था-मानो काले देव खड़े हों।
थोड़ी दूर जाकर रिक्शे वाले ने दोराहे पर रिक्शा रोका। राजन धीरे से धरती पर पैर रखते हुए बोला-‘तो क्या यही सीतलवादी है ?’
‘‘हाँ, बाबू...ऊपर चढ़ते ही सीतलवादी आरंभ होती है।’
‘अच्छा !’ और जेब से एक रुपया निकालकर उसकी हथेली पर रख दिया।
‘लेकिन बाबू ! छुट्टी नहीं है।’
‘कोई बात नहीं फिर कभी ले लूँगा। तुम भी यहीं हो और शायद मुझे भी इन्हीं पर्वतों में रहना हो।’
‘अच्छा बाबू ! नंबर चौबीस याद रखना।’
राजन उसकी सादगी पर मुस्कुराया और गठरी उठाकर ऊपर की ओर चल दिया।
जब उसने सीतलवादी में प्रवेश किया तो सर्वप्रथम उसका स्वागत वहाँ के भौंकते हुए कुत्तों ने किया-जो शीघ्र ही राजन की ओर स्नेह भरी दृष्टि से प्रभावित हो दुम हिलाने लगे और खामोशी से उसके साथ हो लिए। रास्ते में दोनों ओर छोटे-छोटे पत्थर के मकान थे-जिनके बाहर कुछ लोग बैठे किसी न किसी धंधें में संलग्न थे। राजन धीरे-धीरे पग बढ़ाता जा रहा था मानो सबके चेहरों को पढ़ता जा रहा हो।
वह किसी से कुछ पूछना चाहता था-किंतु उसे लगता था कि जैसे उसकी जीभ तालू से चिपक गई है। थोड़ी दूर चलकर वह एक प्रौढ़ व्यक्ति के पास जा खड़ा हुआ-जो एक टूटी सी खाट पर बैठ कर हुक्का पी रहा था। उस प्रौढ़ व्यक्ति ने राजन की ओर देखा। राजन बोला-
‘‘मैं कलकत्ते से आ रहा हूँ। यहाँ बिल्कुल नया हूँ।’
‘कहो, मैं क्या कर सकता हूँ ?’
‘मुझे कंपनी के दफ्तर तक जाना है।’
‘क्या किसी काम से आए हो ?’
‘जी ! वर्क्स मैनेजर से मिलना है। एक पत्र।’
‘अच्छा तो ठहरो ! मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।’ कहकर वह हुक्का छोड़ उठने लगा।
‘आप कष्ट न करिए-केवल रास्ता...।’
‘कष्ट कैसा...मुझे भी तो ड्यूटी पर जाना है। आधा घंटा पहले ही चल दूँगा।’ और वह कहते-कहते अंदर चला गया। तुरंत ही सरकारी वर्दी पहने वापस लौट आया। जब दोनों चलने लगे तो राजन से बोला-‘यह गठरी यहीं छोड़ जाओ। दफ्तर में ले जाना अच्छा नहीं लगता।’
‘ओह...मैं समझ गया।’
‘काकी !’ उस मनुष्य ने आवाज दी और एक बुढ़िया ने झरोखे से आकर झाँका-‘जरा यह अंदर रख दे।’ और दोनों दफ्तर की ओर चल दिए।
थोड़ी ही देर में वह मनुष्य राजन को साथ लिए मैनेजर के कमरे में पहुँचा। पत्र को चपरासी को दे दोनों पास पड़े बैंच पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगे।
चपरासी का संकेत पाते ही राजन उठा और पर्दा उठाकर उसने मैनेजर के कमरे में प्रवेश किया। मैनेजर ने अपनी दृष्टि पत्र से उठाई और मुस्कुराते हुए राजन के नमस्कार का उत्तर दिया।
‘कलकत्ता से कब आए ?’
‘अभी सीधा ही आ रहा हूँ।’
‘तो वासुदेव तुम्हारे चाचा हैं ?’
‘जी...!’
‘तुम्हारा मन यहाँ लग जाएगा क्या ?’
‘क्यों नहीं ! मनुष्य चाहे तो क्या नहीं हो सकता।’
‘हाँ यह तो ठीक है-परंतु तुम्हारे चाचा के पत्र से तो प्रतीत होता है कि आदमी जरा रंगीले हो। खैर...यह कोयले की चट्टानें शीघ्र ही तुम्हें कलकत्ता भुला देंगी।’
‘उसे भूल जाने को ही तो मैं यहाँ आया हूँ।’
‘अच्छा-यह तो तुम जानते ही हो कि वासुदेव ने मेरे साथ छः वर्ष काम किया है।’
‘जी..!’
‘और कभी भी मेरी आन और कर्त्तव्यों को नहीं भूला।’
‘आप मुझ पर विश्वास रखें-ऐसा ही होगा।’
‘मुझे भी तुमसे यही आशा थी। अच्छा अभी तुम विश्राम करो। कल कवेरे ही मेरे पास आ जाना।’
राजन ने धन्यवाद के पश्चात् दोनों हाथों से नमस्कार किया और बाहर जाने लगा।
‘परंतु रात्रि भर ठहरोगे कहाँ ?’
‘यदि कोई स्थान...।’
‘मकान तो कोई खाली नहीं। कहो तो किसी के साथ प्रबंध कर दूँ।’
‘रहने दीजिए-अकेली जान है। कहीं पड़ा रहूँगा-किसी को कष्ट देने से क्या लाभ।’
मैनेजर राजन का उत्तर सुनकर मुस्कुराया और बोला-‘तुम्हारी इच्छा !’
राजन नमस्कार करके बाहर चला गया।
उसका साथी अभी तक उसकी राह देख रहा था। राजन के मुख पर बिखरे उल्लास को देखते हुए बोला।
‘‘क्यों भइया ! काम बन गया ?’
‘क्या किसी नौकरी के लिए आए थे ?’
‘जी...!’
‘और वह पत्र ?’
‘मेरे चाचा ने दिया था। वह कलकत्ता हैड ऑफिस में काफी समय इनके साथ काम करते रहे हैं।’
‘और ठहरोगे कहाँ ?’
‘इसकी चिंता न करो-सब ठीक हो जाएगा।’
‘अच्छा-तुम्हारा नाम ?’
‘राजन !’
‘मुझे कुंदन कहते हैं।’
‘आप भी यहीं।’
‘हाँ-इसी कंपनी में काम करता हूँ।’
‘कैसा काम ?’
‘इतनी जल्दी क्या है ? सब धीरे-धीरे मालूम हो जाएगा।’
‘अब जाओ-जाकर विश्राम करो। रास्ते की थकावट होगी।’
और आप।’
‘ड्यूटी !’
‘ओह..मेरी गठरी ?’
‘जाकर काकी से ले लो-हाँ-हाँ वह तुम्हें पहचान लेंगी।’
‘अच्छा तो कल मिलूँगा।’
‘अवश्य ! हाँ, देखो किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कुंदन को मत भूलना।’
काकी से गठरी ली और एक ओर चल दिया। वह गाँव को इस दृष्टि से देखने लगा कि रात्रि व्यतीत करने के लिए कोई स्थान ढूँढ़ सके। चाहे पर्वत की कोई गुफा ही क्यों न हो। वह आज बहुत प्रसन्न था। इसलिए नहीं कि उसे नौकरी मिलने की आशा हो गई थी, बल्कि इन पर्वतों में रहकर शांति भी पा सकेगा और अपनी आयु के शेष दिन प्रकृति की गोद में हँसते-खेलते बिता देगा। वह कलकत्ता के जीवन से ऊब चुका था। अब वहाँ रखा भी क्या था ! कौन-सा पहलू था, जो उसकी दृष्टि से बच गया हो। सब बनावट ही बनावट-झूठ व मक्कार की मंडी !
वह इन्हीं विचारों में डूबा ‘वादी’ से बाहर पहुँच गया। उसने देखा-थोड़ी दूर पर एक छोटी सी नदी पहाड़ियों की गोद में बलखाती बह रही है। उसके मुख पर प्रसन्नता-सी छा गई। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा नदी के किनारे जा पहुँचा और कपड़े उतारकर जल में कूद पड़ा।
स्नान के पश्चात् उसने वस्त्र बदल डाले और मैले वस्त्रों को गठरी में बाँध, नदी के किनारे-किनारे हो लिया।
सूर्य देवता दिन भर के थके विश्राम करने संध्या की मटमैली चादर ओढ़े अंधकार की गोद में मुँह छिपाते जा रहे थे। राजन की आँखों में नींद भर-भर आती थी। वह इतना थक चुका था कि उसकी दृष्टि चारों ओर विश्राम का स्थान खोज रही थी। दूर उसे कुछ सीढ़ियाँ दिखाई दीं। वह उस ओर शीघ्रता से बढ़ा।
वे सीढ़ियाँ एक मंदिर की थीं-जो पहाड़ियों को काटकर बनाया गया था और बहुत पुराना प्रतीत होता था। वह सीढ़ियों पर पग रखते हुए मंदिर की ओर बढ़ा-परंतु चार-छः सीढ़ियाँ बढ़ते ही अपना साहस खो बैठा। गठरी फेंक वहीं सीढ़ियों पर लेट गया, थकावट पहले ही थी-लेटते ही सपनों की दुनिया में खो गया।
डूबते हुए सूर्य की वे बुझती किरणें मंदिर की सीढ़ियों पर पड़ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्य ने अपनी उन किरणों को समेट लिया। ‘सीतलवादी’ अंधकार में डूब गई-परंतु पूर्व में छिपे चंद्रमा से यह सब कुछ न देखा गया। उसने मुख से घूँघट उतारा और अपनी रजत किरणों से मंदिर की ऊँची दीवारों को फिर जगमगा दिया। ऐसे समय में नक्षत्रों ने भी उनका साथ दिया। मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं-परंतु राजन निद्रा में मग्न उन्हीं सीढ़ियों पर सो रहा था।
अचानक वह नींद में चौंक उठा। उसे ऐसा लगा-मानों उसके वक्षस्थल पर किसी ने वज्रपात किया हो। अभी वह उठ भी न पाया था कि उसके कानों में किसी के ये शब्द सुनाई पड़े-‘क्षमा करिए-गलती मेरी है। मैं शीघ्रता में यह न देख सकी कि कोई सीढ़ियों पर सो रहा है। मेरा पाँव आपके वक्षस्थल पर पड़ गया।’
राजन ने पलटकर देखा-उसके सम्मुख एक सौंदर्य की प्रतिमा खड़ी थी। उस सुंदरी के हाथों में फूल थे-जो शायद मंदिर के देवता के चरणों को सुशोभित करने वाले थे। ऐसा ज्ञात होता था-मानो चंद्रमा अपना यौवन लिए हुए धरती पर उतर आया हो।
राजन ने नेत्र झपकाते हुए सोचा-कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा। परंतु यह एक वास्तविकता थी।
राजन अब भी मोहाछन्न-सा उसी की ओर देखे जा रहा था। सुंदरता ने मर्म भेदी दृष्टि से राजन की ओर देखा और सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते मंदिर की ओर चल दी। उसके पांवों में बंधी पाजेब की झंकार अभी तक उसके कानों में गूँज रही थी और फूलों की सुंगध वायु के धीमे-धीमे झोंके से अभी तक उसे सुगंधित कर रही थी।
न जाने वह कितनी देर तक इन्हीं मीठी कल्पनाओं में डूबा सीढ़ियों पर बैठा रहा। अचानक वही रुन-झुन उसे फिर सुनाई पड़ी। शायद वह पूजा के पश्चात् लौट रही थी। राजन झट से सीढ़ियों पर लेट गया। धीरे-धीरे पाजेब की झंकार समीप आती गई। अब वह सीढ़ियों से उतर रही थी तो न जाने राजन को क्या सूझी कि उसने सीढ़ियों पर आंचल पकड़ लिया। लड़की ने आंचल खींचते-खींचते मुँह बनाकर कहा-‘यह क्या है ?’
‘’शायद पाँवों से ठोकर तुम्हीं ने लगाई थी।’
‘हाँ, तो यह गलती मेरी ही थी।’
‘केवल गलती मानने से क्या होता है।’
‘तो क्या कोई दण्ड देना है ?’
‘दण्ड, नहीं तो...एक प्रार्थना है।’
‘क्या ?’
‘जिस प्रकार तुमने मंदिर जाते समय अपना पाँव मेरे वक्षस्थल पर रखा था-उसी प्रकार पाँव रखते हुए सीढ़ियाँ उत्तर जाओ।’
‘भला क्यों ?’
‘मेरी दादी कहती थी कि यदि कोई ऊपर से फाँद जाए तो आयु कम हो जाती है।’
‘ओह ! तो यह बात है-परंतु इतने बड़े संसार में एक-आध मनुष्य समय से पहले चला भी जाए तो हानि क्या है ?’
इतना कहकर हँसते-हँसते सीढ़ियाँ उतर गई-राजन देखता का देखता रह गया-पाजेब की झंकार और वह हँसी देर तक उसके कानों में गूँजती रही।
प्रातःकाल होते ही राजन मैनेजर के पास पहुँच गया-
वह पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में बैठा हुआ था-उसे देखते ही बोला-‘आओ राजन ! मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था।’
फिर सामने खड़े एक पुरुष से बोला-
‘माधो ! यह हैं वह युवक जिनकी बात अभी मैं कर रहा था !’ और राजन की ओर मुख फेरते हुए बोला-‘राजन इनके साथ जाओ-ये तुम्हें सब काम समझा देंगे आज से तुम इस कंपनी में एक सौ रुपये वेतन पर रख लिए गए हो।’
‘मैं किस प्रकार आपका धन्यवाद करूँ ?’
‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं-परन्तु देखो-कार्य काफी जिम्मेदारी का है।’
‘इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं-मैं अच्छी प्रकार समझता हूँ।’
कहते हुए राजन माधो के साथ बाहर निकल गया।
थोड़ी दूर दोनों एक टीले पर जाकर रुक गए-माधो बोला-
‘राजन ! यह वह स्थान है-जहाँ तुम्हें दिन भर काम करना है।’
‘और काम क्या होगा-माधो ?’
‘यह सामने देखते हो-क्या है ?’
‘मजदूर...सन की थैलियों में कोयला भर रहे हैं।’
‘और वह नीचे !’ माधो ने टीले के नीचे संकेत करते हुए पूछा।
राजन ने नीचे झुककर देखा-एक गहरी घाटी थी-उसके संगम में रेल की पटरियों का जाल बिछा पड़ा था।
‘शायद कोई रेलवे स्टेशन है।’
‘ठीक है-और यह लोहे की मजबूत तार, जो इस स्थान और स्टेशन को आपस में मिलाती है जानते हो क्या है ?’’
‘टेलीफोन !’
हँसते हुए कहा-‘नहीं साहबजादे ! देखो मैं समझाता हूँ।’
माधो ने एक मजदूर से कोयले की थैली मँगवाई और उसे तार से लपेटते हुए भारी लोहे के कुण्डों से लटका दिया-ज्यों ही माधो ने हाथ छोड़ा थैली तार पर यों भागने लगी-मानो कोई वस्तु हवा में उड़ती जा रही हो-पल भर में वह नीचे पहुँच गई-राजन मुस्कुराते हुए बोला-‘सब समझ गया-यह कोलया थेलियों में भर-भरकर तार द्वारा स्टेशन तक पहुँचाना है।’
‘केवल पहुँचाना ही नहीं-बल्कि सब हिसाब भी रखना है और सांझ को नीचे जाकर मुझे बताना है-मैं यह कोयला मालगाड़ियों में भरवाता हूँ।’
‘ओहो ! समझा ! और वापसी पर थैलियाँ मुझे ही लानी होंगी।’
‘नहीं-इस कार्य के लिए गधे मौजूद हैं।’
राजन यह उत्तर सुनते ही मुँह फेरकर हँसने लगा, और नाक सिकोड़ता हुआ नीचे को चल दिया।
माधो के कहने के अनुसार राजन अपने काम में लग गया। उसके लिए यह थैलियों का तार के द्वारा नीचे जाना-मानो एक तमाशा था-जब थैली नीचे जाती तो राजन यों महसूस करता-जैसे कुण्डे के साथ सटका हुआ हृदय घाटियों को पार करता जा रहा हो, वह यह सब कुछ देख मन ही मन मुस्करा उठा-परंतु काम करते-करते जब कभी उसके सम्मुख रात्रि वाली यह सौंदर्य प्रतिमा आ जाती तो वह गंभीर हो जाता-फिर यह सोचकर कि उसने कोई स्वप्न देखा है-भला इन अंघेरी घाटियों में ऐसी सुंदरता का क्या काम ? सोचते-सोचते वह अपने काम में लग जाता।
काम करते-करते चार बज गए-छुट्टी की घंटी बजी-मजदूरों ने काम छोड़ दिया और अपने-अपने वस्त्र उठा दफ्तर की ओर बढ़े।
‘तो क्या छुट्टी हो गई ?’ राजन ने एक से पूछा।
‘जी बाबूजी –परंतु आपकी नहीं।’
‘वह क्यों ?’
‘अभी तो राजन नीचे जाकर माधो दादा को हिसाब बतलाना है।’
और राजन शीघ्रता से रजिस्टर उठा घाटियों में उतरती हुई पगडंडी पर हो लिया-जब वह स्टेशन पहुँचा तो माधो पहले से ही उसकी राह देख रहा था-राजन को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पहले ही दिन हिसाब माधो से मिल गया-हिसाब देखने के बाद माधो बोला-
‘राजन, आशा है कि तुम इस कार्य को शीघ्र ही समझ लोगो।’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है दादा !’ राजन ने सामने रखे चाय के प्याले पर दृष्टि फेंकते हुए उत्तर दिया और फिर बोला-‘दादा इसकी क्या आवश्यकता थी ? तुमने तो बेकार कष्ट उठाया।’ कहते हुए चाय का प्याला उठाकर गटागट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा क्रोध आया, पर बनावटी मुस्कान होंठों पर लाते हुए बोला-‘कष्ट काहे का-आखिर दिन भर के काम के पश्चात् एक प्याला चाय ही तो है।’
‘दादा ! अब तो कल प्रातः तक की छुट्टी ?’ राजन ने खाली प्याला वापस रखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं-हाँ, देखो यह सरकारी वर्दी रखी है और यह रहा तुम्हारा गेट पास-इसका हर समय तुम्हारे पास होना आवश्यक है।’
‘यह तो अच्छा किया-वरना सोच रहा था कि प्रतिदिन कोयले से रंगे काले मेरे वस्त्रों को धोएगा कौन ?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दूसरे से वस्त्र उठाते हुए वह दफ्तर की ओर चल पड़ा-कंपनी के गेट से बाहर निकलते ही राजन सीधा कुंदन के घर पहुँचा-कुंदन उसे देखते ही बोला-
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